उधार के नेता...


उधार के नेता... चुनाव से पहले दिल और दल बदलने का दस्तूर पुराना है...यू समझिए कि, राजनेता जिस दल को जी भरकर गाली देते हैं मौका मिलते ही उनकी गलियों के मुसाफिर हो जाते हैं...तमाम दलों के नेता एक पलड़ा देखकर पाला बदल लेते हैं...लेकिन उधारी के ये नेता...उस पार्टी के कैडर परबोझ बन जाते हैं...जो सालों से पार्टी की सेवा में लगा था...दरअसल, यूपी चुनाव से पहले एक के बाद एक नेता बीजेपी की माला गले में डाल रहे हैं...जत्थे के जत्थे अपनी जमीन तलाशते नजर आ रहे हैं...और इस सबसे तमाम पार्टियों के कैडर की जमीन हिलने लगी है... ये सुविधा की सियासत है...या बदलता वक्त देखकर बदले गए पाले में पांव जमाने की कोशिश...क्योंकि, दिल बदलकर, दल बदलने में देर ही कहां लगती है राजनेताओं को...कलतक जिन्हें पानी पी-पीकर कोसा जाता हो...अचानक से वो सबसे अच्छे लगने लगते हैं...और अचानक पूरा हो जाता है गाली से गले लगने तक का सफर...यूपी चुनाव से पहले बीजेपी ने तमाम छोटे बड़े चेहरों को लिए चाहतों की चादर फैला दी है...जिला स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक...मौजूदा और पूर्व सांसद से लेकर नेता विधानमंडल तक....एक के बाद एक नेताओं का जत्था...जय-जयकार करता हुआ बीजेपी के पंडाल में जमीन तलाश कर रहा है...लेकिन इस जमावड़े से सबसे बड़ा संकट, पार्टी के उस कैडर पर है जिसकी सियासी जमीन पर ये बाहरी कब्जा कर लेगें हैं...स्वामी प्रसाद मौर्य, ब्रजेश पाठक, रीता बहुगुणा जैसे इन सियासतदाओं का आखिर समायोजन कैसे होगा...? ऐसे ही समाजवादी पार्टी में तमाम बाहरी नेताओं का बसेरा है..बहुजन समाज पार्टी में नए आ रहे हैं तो पुराने जा रहे हैं...कमोबेश यही हाल कांग्रेस के कुनबे का भी है...बात करें बीजेपी की तो ऐसा ही माहौल तो बनाया गया था बिहार में...जब बीजेपी से जुड़े थे बाहरी...बीजेपी की दलील थी कि, वोट बैंक का ऐसा बुके तैयार किया है, जिसमें समाज का हर एक फूल है...मांझी को मंच पर बैठाकर तो बीजेपी ने एलान कर दिया था...कि, उसके विजय रथ को कोई रोक नहीं पाएगा...और तो और पप्पू यादव सरीखे नेता को भी सुरक्षा के तामझाम का ताबीज दिया था...लेकिन कोई जतन काम ना आया...बल्कि, बिहार में ‘हार’ की माला गले पड़ गई...। बहरहाल, थोड़ा बहुत आवागमन तो कैर झेल जाता है...लेकिन बाहरियों की भीड़ जब बढ़ने लगती है..तो पार्टी का वो कैडर या तो खुद को अलग कर लेता है या उन नेताओं को हराने की जुगत में जुट जाता है...सवाल ये है कि, जब जीत की गारंटी नहीं होते उधारी के नेता...तो क्यों कैडर के कंधों पर डाला जाता है इनका बोझ...?

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