मुसलमान - गोल टोपी, कुर्ता-पजामा या कुछ और.....



मुसलमान

‘सफेद कुर्ते वाला, उंचे पायजामें वाला, गोल टोपी, लंबी दाड़ी वाला, बिरयानी खाने खिलाने वाला और हां वो जिसके घर के बाहर 786 लिखा होता है’ मुसलमान शब्द सुनते ही क्या एक ऐसी ही तस्वीर उभर कर आपकी आंखो के सामने आती है...तो क्या सारी दुनिया मुसलमानों को इसी नजरिए से देखती है...किसने बनाई ये मुसलमानों की ये इमेज?...क्यों बनाई गई ये इमेज?...क्या इस इमेज से इतर भी मुसलमानों की कोई तस्वीर बदली है? दरअसल, आजादी के बाद से अब तक शायद ही कोई ऐसा बजट रहा हो, या ऐसी कोई पंचवर्षीय योजना रही हो जिसमें अल्पसंख्यकों के लिए योजनाएं ना हो...कोई चुनाव भी ऐसी नहीं रहा जिसमें इस तबके की तस्वीर बदलने के लिए ढोल ना पीटा गया हो, तो क्यों नहीं बदल पाई मुसलमानों की तस्वीर...?

सच्चर कमेटी से लेकर, रंगनाथमिश्रा तक और मिश्रा जी से लेकर प्रोफेसर अमिताभ कुंडू तक सभी की रिपोर्ट में मुसलमानों के विकास की तस्वीर बेरंग ही है...यूपीए सरकार ने अपनी पहली पारी यानी 2005 में मुसलमानों की हालत जानने के लिए सच्चर कमेटी का गठन किया, कमेटी को पता लगाना था कि देश में मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक हालत क्या है, दो साल की माथापच्ची के बाद सच्चर कमेटी ने मुसलमानों की हालत का जो खाका सामने रखा वो चौंकाने वाला था...कमेटी के मुताबिक तो ‘मुसलमानों की हालत दलित और पिछड़ों से भी बदतर है...मुस्लिम समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिणक स्थिति खराब है, सरकारी नौकरियों में उचित प्रतिनिधित्व नहीं है, कई मामलों में स्थिति अनुसूचित जाति-जनजातियों से भी खराब है, मुस्लिम समुदाय में साक्षरता की दर भी राष्‍ट्रीय औसत से कम है, आर्थिक कारणों के चलते बच्चों को काम सीखने में लगा दिया जाता है, सम्पति और सेवाओं की पहुंच के मामले में भी स्थिति कमजोर है’...कमेटी ने बताया कि,...

देश में महज 3 फीसदी आईएएस मुसलमान हैं।

विदेश सेवा में भी मुसलमानों की तादाद केवल 1.8 फीसदी है।

15 लाख से ज्यादा रेलवे कर्मचारियों में सिर्फ 4.5 फीसदी मुस्लिम हैं।

आम नौकरियों में भी मुसलमानों की हिस्सेदारी महज 5 फीसदी है।

6 से 14 साल की उम्र के 25 फीसदी बच्चे या तो स्कूल नहीं जा पाते, या बीच में पढ़ाई छोड़ देते हैं।


कैसे हुई मुस्लिम समाज की ये हालत ?...किसने की मुस्लिम समाज की ये हालत ?...सरकारों ने या खुद मुसलमानों के रहनुमाओं ने ? इस कौम की बदहाली के मुद्दे पर हमने मुस्लिम विद्धानो, बुद्धजीवियों, और कई वरिष्ठ पत्रकारों से पूछा तो उनकी राय जुदा जरुर थी, लेकिन लब्बोलुआब यही था कि, मुस्लिमों को खुद आत्मचिंतन और आत्मनिरीक्षण की जरुरत है...।

देश के मुद्दों की बखूबी नब्ज समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ अग्निहोत्री जी कहते हैं कि,
'सबसे बड़ी बात ये कि, इस बात का ख्याल रखे कि, कोई आपका इस्तेमाल ना कर पाए,खासतौर पर सियासी इस्तेमाल तो कतई नहीं मुसलमानों को सोचना होगा कि, असम-बंगाल में कभी बीजेपी सरकार नहीं रही लेकिन वहीं सबसे मुस्लिमों की सबसे ज्यादा हालत खराब है,आप अपना कंधा सियासी बंदूकबाजों को मत दीजिए इस धारणा को तोड़िए की मुस्लिमों का वोट एकमुश्त किसी को जाता है,वक्त के हिसाब से कदम से कदम मिलाकर चलिए, टोपी या रामनामी के हमेशा होने से तो अलग अलग ही संदेश जाता है, ऐसी किसी परंपरा को मत मानिए जो आपकी तरक्की के रास्ते में रोड़ा हो'

कवि,लेखक और वरिष्ठ पत्रकार नीलेश मिश्रा कहते हैं कि,
‘सफेद कुर्ते वाला, उंचे पायजामें वाला, गोल टोपी, लंबी दाड़ी वाला, बिरयाने खाने खिलाने वाला और हां वो जिसके घर के बाहर 786 लिखा होता है ये नजरिया किताबों, मंच और फिल्मी दुनिया का नजरिया है, ज्यातादर जगहों पर मुस्लिमों को इसी किरदार में पेश किया है इसलिए कुछ लोगों के ज़हन में वही नजरिया बनकर रह गया है’
उर्दू शायर और वरिष्ठ पत्रकार तहसीन मुनव्वर साहब के ये शब्द मुस्लिम समाज को आईना दिखाने के लिए काफी है...

‘माना कि वो पहले से दिन और रात नहीं हैं, तुझपे वो मोहब्बत की इनायात नहीं है।

मेहनत का समर तुझको मगर दे नहीं पाएं, ऐसे भी बुरे मुल्क के हालात नहीं हैं’।।

आजादी के बाद बीते करीब 70 दशकों में देश का विकास तो हुआ, इस दौड़ में मुस्लिम तबका कहीं पीछे छूट गया देश में करीब 14 फीसदी मुसलमान हैं...यानि दुनिया की दूसरी सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी भारत में हैं लेकिन देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक तबके की दोहरी त्रासदी ये कि, एक तरफ तो फतवों के फंदों में लटका है, दूसरी ओर विकास की रेस में भी तेजी से नहीं दौड़ पा रहा है...मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से लेकर दारुल उलूम देवबंद और बरेली आला हजरत तक का किरदार केवल शरीयत आधारित कानूनों और नियमों के मद्देनजर ही रहा है...मुस्लिमों के बुनियादी मुद्दों पर कभी शोर नहीं सुना...बल्कि मौलानाओं का जोर आधुनिकता के बजाए फतवों पर ज्यादा रहा है, अरब देश जब अपने यहां आधुनिकता को अपना रहा है तब 21 वीं सदी के भारत में मुस्लिम समाज फतवों के फंदे में फंसाया जा रहा है...बीते दिनों के फतवों को देखें तो, महिलाओं का मेकअप मौलानाओं के निशाने पर रहा, उनके मोबाइल फोन पर नजर रही, जींस और दूसरे पश्चिमी पहनावे पर नजर रही...कंधों से कंधा मिलाकर लड़कों के मुकाबिल खड़ी लड़कियों स्कूल में पढ़ना भी इन धर्मगुरुओं को रास नहीं आता।


जबकि, पैगंबर मोहम्द साहब ने कहा था, ‘कि एक मर्द को पढ़ाया तो एक इंसान पढ़ता है लेकिन एक औरत को पढ़ाया तो एक खानदान एक नस्ल पढ़ती है’

1400 साल बाद भी मुसलमानों में बड़े तबके की सोच संकीणर्ता की बेड़ियों से बाहर नहीं आ पाई है, दुनिया कंप्यूटर के की-बोर्ड से करिश्मा करती हुई मंगल ग्रह पर जा पहुंची है, लेकिन मुस्लिमों के दिमाग को तो जैसे किसी ने अभी भी हैक कर रखा है, टेक्नोलॉजी से तरक्की का सफर तय करते हुए दूसरे लोग समंदर के पानी से तेल निकाल रहे हैं और हम अभी तक सिर्फ ज़मज़म पानी के फायदे गिना रहे है...हमने कुरान भी नहीं पढ़ा और किताबें भी नहीं पढ़ी, दूसरे मजहब के लोग तालीम हासिल करके तरक्की हासिल कर रहे हैं, हम नकली रशीदें छपवाकर मदरसों के नाम पर चंदा इकट्ठा कर रहे हैं, दूसरे लोग पढ़ लिखकर काबिल डॉक्टर बन रहे हैं, वहीं हम केवल दुआओं में शिफा ढूंढते हैं...मैने किसी मौलाना को कभी ये फतवा देते नहीं सुना कि, मुस्लिम बच्चे स्कूल में पढ़ने जाएं, मुस्लिम समाज बच्चों को शिक्षित बनाएं, तकनीकी इल्म से तरक्की के रास्ते अपनाएं...तो क्या फिर भी मुस्लिम समाज की बदहाली के लिए सरकारें ही जिम्मेदार हैं...? वो कौम जिसकी हदीस से लेकर पैगंबर तक इल्म के लिए इतनी खूबसूरत बातें कही हैं वो कौम इल्म के मामले में इतनी पीछे हैं...क्यों अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया के अलावा कोई मुस्लिम यूनिवर्सिटी देश के नक्शे पर दिखाई नहीं देती, मदरसों के नाम पर अरबों रुपए का चंदा इक्ट्ठा होते तो खूब देखा है...अगर जकात के पैसे से ही मदरसे, स्कूल, कॉलिज और विश्विद्यालय खोले जाएं तो शायद हर शहर में अच्छे शिक्षा के संस्थान हो सकते हैं।

तमाम मंचों पर मुस्लिम मामलों को लेकर बेबाकी से अपनी राय रखने वाली सोशल एक्टिविस्ट ताहिरा हसन जी कहती हैं...  अंग्रेज़ो को अपना दुश्मन नंबर एक मान कर आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाला और बंटवारे के बाद भारत में रह गया मुसलमान हेल्थ और एजुकेशन के मामले में लगातार पिछड़ता चला गया, आए दिन होने वाले दंगो ने भी उसे डर और ख़ौफ़ में रहने पर मजबूर कर दिया, चालाक नेताओ और बिकाऊ मतलबी क़ौमी रहनुमाओ ने उसे सिर्फ वोट बैंक में तब्दील कर दिया..आज लोग उसे सिर्फ टोपी, दाढ़ी और ऊंचा पैजामे से पहचानते है, जेहालत से भरपूर ज़्यादातर मुसलमानो ने ऊंचे ख्वाब तक देखने छोड़ दिए हैं, सर सय्यद के अलावा मुसलमान के नाम पर कोई एक ऐसा नेता नहीं हुआ जिसने क़ौम की बेहतरी की फ़िक्र की, ज़ाहिर है जो क़ौम एजुकेशन में पिछड़ती जाएगी वह हर शोबे में पीछे होगी जिसका सबूत सच्चर और रंगनाथ रिपोर्ट है, आज जब मुसलमान पूरी तरह ठगा जा चुका है उसे खुद इस दलदल से बाहर निकलना होगा इसके लिए एक पीढ़ी को सैक्रीफाइज़ कर अपनी ख्वाहिशात को दरकिनार रख अपने बच्चो को सिर्फ और सिर्फ बेहतर एजुकेशन देनी होगी।

हर शहर में एएमयू जैसी यूनिवर्सिटी हो सकती हैं, लेकिन ये होगा कैसे, ये सब करेगा कौन...पैगंबर साहब ने तो यहां तक कहा है कि, ‘इल्म के लिए अगर चीन तक जाना पड़े तो जाएं’ लेकिन एक सर्वे के मुताबिक अभी भी अशिक्षा के मामले में मुस्लिम समाज पहले पायदान पर है, पहले से हालात बदले हैं लेकिन उस तरह से नहीं जैसे बदलने चाहिए थे...संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडर कर ने अपनी एक सभा में कहा था कि, ‘पढ़ो या मर जाओगे’


मुस्लिम तबके के हाशिये का दूसरा हिस्सा देखें तो मुस्लिम मुद्दों का मंच बनाकर मुस्लिमों के नेता तो बहुत बन गए, लेकिन मुस्लिम समाज को ही नहीं पता कि, मुस्लिम लीडर है कौन, ये भी नहीं पता की मुस्लिमों का लीडर कौन है...और जो लीडर है तो क्या वो पूरे मुस्लिम समाज की सोच को सबके सामने रख रहे हैं या केवल अपनी सोच को समाज के सामने रखकर मुस्लिम समाज की ये इमेज बना रहे हैं...तो फिर सवाल उठता है कि, क्या मुस्लिम धार्मिक सोच की वजह से पिछड़ रहे हैं या सोच उन्हें पिछड़ा बना रही है...कुछ युवाओं से मैने जब इस सोच को समझना चाहा तो उनकी सोच थोड़ी आधुनिक लगी।


कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एंव जनसंचार विश्विद्याल में सहायक अध्यापक रुख़सार परवीन मंसूरी कहती हैं...
‘मुसलमानों के पिछ़ड़े होने का एक मात्र कारण है उनकी नुमाइंदगी करने वाले चाहें किसी भी पार्टी से हों, उन्होंने केवल मुसलमानों को वोटबैंक बनाकर रखा, हमारी नुमाइंदगी करने वालों ने हमारे नाम पर केवल अपनी दुकानदारी चलाई, हमें तालीम के अलावा बाकी सब चीजों में उलझा दिया, जो कमी हम में है वो है तालीम की कमी जबकि, इस्लाम में इकरा शब्द बहुत महत्वपूर्ण है’


यानि, मुस्लिम युवा बदलाव चाहते हैं, घर मोहल्ले से बदलाव की मुहिम उनके जरिए शुरू भी की गई है, लेकिन सफेद कुर्ता, गोल टोपी और उंचे पजामें की पहचान के सवाल पर एक नाराजगी का नजरिया भी देखने को मिला...नाराजगी इस बात को लेकर थी कि, मुस्लिमों के मुद्दे पर होने वाली हर टीवी डिबेट में किसी प्रोफेसर, चांसलर, किसी मुस्लिम बुद्धजीवी और मुस्लिम समाज के युवाओं को शामिल करने के बजाए जब हर मुद्दे पर मौलानाओं को बैठाया जायेगा तो मुस्लिम समाज की इमेज कैसे बदलेगी? फिर तो समाज, सियासत और दुनिया हमें इसी नजरिए से देखेगी...एक सच ये भी है कि, आजादी के कुछ सालों बाद तक सरकारी नौकरी में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व 38 फीसदी के करीब हुआ करता था, जो घटते-घटते 1 फीसदी से भी कम रह गया है, इसकी वजह तलाशें तो शिक्षा, रोजगार और बुनियादी जरूरतों पर ध्यान ही नहीं दिया गया, बल्कि सियासी बिसात पर उसे खुद के रहनुमाओं ने केवल मोहरों के तरह इस्तेमाल किया, एक अलग तरह का डर पैदा किया गया, राजनीतिक पार्टियों ने इस डर को खूब भुनाया और डर से मिलने वाले वोट से सत्ता की मलाई लूटी...आजादी के इतने सालों बाद बनी इमेज का ज़िम्मेदार काफी हद तक खुद मुसलमान भी हैं। देश के मुसलमानों ने कभी एकजुट होकर कौम की तरक्की के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया।


अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय में असिसटेंट प्रोफेसर मोना जी की राय है कि,...
‘मुसलमान अपने पिछड़ेपन के लिए ज्यादातर खुद जिम्मेदार हैं, इसका अहम कारण अशिक्षा और संकीर्ण सोच है, मजहब को भूल गए है, तरक्की वाली अक्ल पर ताले डाल रखे हैं, आपस में खुद ही बंटे हे हैं, अशिक्षा इन्हें और पीछे ले जा रही है बहुत से लोग ना खुद पढ़े हैं ना बच्चों को पढ़ाते हैं,कुरान की ताकीद को भूल गए हैं, आत्मचिंतन की बहुत जरुरत है’

अपनी सोच बदलने और सियासी पार्टियों की गुलामी की जंजीरें तोड़ने के लिए कभी एक अदनी सी कोशिश नही की...और अगर अब भी केवल वोट बैंक बनकर इस्तेमाल हुआ, शायद ही हालात बदले, हालात बदलने के लिए खुद को बदलना होगा, कौम की सोच को बदलना होगा, संकीर्णता की बेड़ियों को तोड़ना होगा, तभी कामयाबी के साथ कदम मिलाए जा सकते हैं...तभी बदला जा सकता है इस कौम का किरदार...तभी तो बनते हैं अबुल कलाम आजाद, तभी तो बनेंगे सर सैयद अहमद खां, तभी होंगे मौलाना अली जौहर, तभी तो पैदा होंगे और कलाम...दिन रात-सोशल मीडिया पर पोस्ट लिख कर सरकारों और सिस्टम को कोसने वाले मुस्लिम युवा, शायरी की महफिल में वाह-वाही करने वाले मुस्लिम बुद्धजीवी...क्या मुस्लिम समाज की इस हालत पर आत्ममंथन करते हैं...क्या मुस्लिम युवा अपनी इमेज के लिए आत्ममंथन करेंगे...?

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