मजदूर दिवस या मजबूर दिवस...मायने क्या ?

1 मई...यानि मजदूर दिवस....यानि मजदूरों का दिन ...बल्कि यूं कहिए कि, मजबूर दिवस....कहने और सुनने में कितना शुकुन देता है ये शब्द ...लेकिन इस शब्द  के मायने,   शायद उन मजदूरों के लिए कुछ भी नही जिनके नाम पर इसे दुनिया में मनाया जा रहा है...वो बेचारे तो इस दिन बी रोजी रोजी के लिए कमर तोड़ रहे हैं...पसीना बहा रहे हैं...नहीं बहाएंगे तो रात को परिवार भूंखा ही सोयेगा...

फिर कैसा मजदूर दिवस..किसका मजदूर दिवस....दिन रात रोजी-रोटी के जुगाड़ में जद्दोजहद करने वाले मजदूर के लिए,  पेट और परिवार की मजबूरी में हर दिवस छोटा होता है...उसे तो दो जून की रोटी मिल जाए मानों सबकुछ मिल गया...हालांकि चिंता अलसुबह जरुर होगी....क्योंकि भूंख के भूगोल में हर रोटी इनके हिस्स में बड़ी मशक्कत से आती है...

कई बार तो चमकता चांद भी इन्हें रोटी ही नजर आता है...आजादी के 68 साल में भले ही बहुत कुछ बदला हो, लेकिन इनके हालात नहीं बदले...तो फिर मनाइये मजदूर दिवस...

अब कड़ाके की सर्दी का कहर हो या ज्येष्ठ की तपती दोपहरी, दूसरों के लिए आलिशान आशियाने बनाते हैं ये मजदूर ...और खुद के लिए खुले आसमान का ही आसरा है...बरसात में तो और बदहाल हो जाती है इनकी जिंदगी ...ये आजादी के बाद से बदले हालात हैं...कोई बूंके पेट तो कोई सूखी प्याज रोटी लेकर....गांव की गलियों से हर रोज शहर आते हैं सैकड़ों मजदूर...कुछ को काम  मिल जाता है...और कुछ लौट जाते हैं निराशा को लपेटकर...जिन्हें काम मिल गया वो नसीब वाले जिन्हें नहीं मिला उनसे बड़ा बदनसीब कौन....कई बार तो कई दिन चलता है यही सिलसिला....फिर किसके लिए मनाएं मजदूर दिवस...
कैसे बदले हाल, कैसे बदले दशा और दिशा...ना सामाजिक स्तर बदला, ना शिक्षा का स्तर बदला, जिंदगी कल औऱ आज इसी ठर्रे पर चल रही है...डॉक्टर का बेटा डॉक्टर, वकील का बेटा वकील सिपाही का बेटा सिपाही..तो क्या मजदूर के बच्चे मजदूर ही रहेंगे....दिन की लौ जलने से लेकर रात को लौ बुझने तक... कोल्हू के बैल की तरह करते हैं काम...लेकिन मुनाफे की अंधी दौड़ में मजदूरी के नाम पर मिलता है शोषण...कोई बंधुआ मजदूर बनके मजबूर है...तो कोई बाल मजदूरी में मजबूर...तो, क्या कहेंगे इसे मजदूर दिवस या मजबूर दिवस...
मजदूरों के लिए एक दिन तो नाम कर दिया गया है... लेकिन साल भर जब यह तबका काम के लिए के लिए संघर्ष करता है....कहावत के मुताबिक तो रोज कुआ खोदना और रोजाना पानी पीने के लिए अभिशप्त है मजदूर...
हर मजदूर दिवस पर बड़ी-बड़ी सभाएं होती हैं, बड़े-बड़े सेमीनार... सुनकर ऐसा लगता है कि मजदूरों कोई समस्या बचेगी ही नहीं....लेकिन ना जाने कितने मई दिवस आकर चले गए... मजदूर की जिंदगी में आज भी अंधेरा है...न्यूनतम मजदूरी के लिए मजबूर है मजदूर..इसलिए सवाल ये है कि, फिर क्या मायने हैं ऐसे मजदूर दिवस के  ?



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