काशी को क्या मिला?

रोज़ देखा जाने वाला, कहा जाने वाला, सुना जाने वाला लिखा जाने वाला और इन सबसे ऊपर जीया जाने वाला शहर है काशी। इसकी इतनी परिभाषाएं और व्यंजनाएं हैं कि यह शहर हर लफ़्ज़ के साथ कुछ और हो जाता है। लिखनेवाले की गिरफ़्त से निकल जाता है। आने वालों के दिल में बस जाता है बनारस..जो यहां आता है यहीं का हो जाता है...ऐसा ही हुआ लोकसभा के दंगल में....
लोकसभा के रण में राजनीति का केंद्र बनी थी काशी...और इसी काशी नें मोदी जी को पीएम बना दिया...विकास की अविरल गंगा बहाने का वादा किया था सभी ने...लेकिन अविरल बहती गंगा की लहरों के साथ...वादे, सपने और उम्मीदें अब भी तैर रही हैं...क्योंकि उनमें से किसी को भी किनारा नहीं मिला है...विकास के नाम पर कुछ मिला हो तो केवल सियासत...औऱ इन सियासी सपनों का काशी की जनता करे तो क्या करें...।
बनारस की उम्मीदों को आसरा नहीं मिला
एक साल से ज्याद के इस समय में... विकास के वादों पर बैठा पर मुंह ताक रहा है बनारस....बुनकरों की बदहाली, सीवरों की समस्या...गंगा  की सफाई और जाम का  जंजाल...केंद्र सरकार काशी की काया पर मौन है... वहीं सूबे की सरकार केंद्र की  सरकार से काशी पर मेहरबान है...केंद्र एक साल में 200 करोड़ भी खर्च नहीं कर पाई तो राज्य सरकार 3000 करोड़ से ज्यादा काशी के नाम पर कर चुकी है...इतने पर भी मोदी जी के परिवार वाले बड़ी बड़ी बातें करते हैं बयानों में बड़बोले कहते हैं कि, प्रदेश की चिंता करें मुखिया जी...बनारस को छोड़ दें....
आखिर एक साल में काशी को क्या मिला...
बुनकरों के  हस्तशिल्प कला केंद्र का हाल ये कि, केवल नामकरण ही हुआ है काम नहीं...वहीं दिल्ली में बटन दबाकर हो सकता था जिसका काम...वो ट्रामा सेंटर भी  महीने तक पीएम के इंतजार में पड़ा रहा...केंद्र सरकार के बनारस आने वाले मंत्री भी काशी और  क्योटो की कहानी सुनाकर चले जाते हैं...कैसे होगा वो कोई नहीं जानता...अभी तक बढ़ाया है तो उम्मीदों का बोझ...कहने वाले कह रहे हैं ये धोखा है...क्योंकि काशी की कमर झुकने लगी है वादों के बोझ से...।

सरकार बदल गई हालात नहीं बदले...
जो हाल  लोकसभा के चुनाव के समय था वो ही आज भी है..चुनाव से पहले भी गंगा की लहरें सियासत के समंदर में हिचकोले खा रही थीं...चुनाव के एक साल बाद भी हिचकोले ही खा रही हैं...सवाल ये है कि, किसने दिया कम, किसने दिया ज्यादा...आखिर काशी को क्या मिला है अबतक.... ?

बनारस कहिए, वाराणसी या फिर काशी...हम तो ये कहेंगे कि इस बार दिल्ली का रास्ता बाबा विश्वनाथ की नगरी से होकर ही गया था...लेकिन इस चुनाव में वाराणसी से विकास के बड़े-बड़े वादे किए गए...सपने दिखाए गए...क्या हुआ उन सपनों का....काशी के नाम पर केवल  सिसासत हुई...।
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