मजदूर दिवस के मायने क्या?


मई...यानि मजदूर दिवस....यानि मजदूरों का दिन...कहने और सुनने में कितना सुकून देता है ये शब्द...लेकिन इस शब्द के मायने  शायद उन मजदूरों के लिए कुछ भी नही जिनके नाम पर इसे दुनिया में मनाया जाता है...वो बेचारे तो इस दिन भी रोजी रोजी के लिए कमर तोड़ते हैं...पसीना बहाते हैं...क्योंकि, पसीना नहीं बहाएंगे तो इनके परिवार भूंखे ही सोयेंगे...तो फिर कैसा मजदूर दिवस…और किसका मजदूर दिवस....दिन रात रोजी-रोटी के जुगाड़ में जद्दोजहद करने वाले मजदूर के लिए,  पेट और परिवार की मजबूरी में हर दिवस छोटा होता है...क्योंकि, पेट की आग सबसे बड़ी होती है, उसे तो दो जून की रोटी मिल जाए मानों सबकुछ मिल गया...भूख के भूगोल में हर रोटी इनके हिस्स में बड़ी मशक्कत से आती है...बकौल गुलजार साहब कहें तो...कई बार तो चमकता चांद भी इन्हें रोटी ही नजर आता है
1 मई को ही क्यों मनाते हैं मजदूर दिवस?
दरअसलभारत समेत दुनिया के करीब 80 देशों में मजदूर दिवस मनाया जाता है और विदेश की कई कंपनियां तो अपने मजदूरों के लिए खास छुट्टी तक रखती हैं। विदेशो में इस दिन को लेबर यूनियन मूवमेंट और मजदूरों के सम्मान में मनाया जाता है। कुछ मुल्कों में इसे इंटरनेशनल वर्कर्स डे’ या केवल वर्कर्स डे’ के नाम से भी सेलीब्रेट किया जाता है। भारत में इसे मजदूर दिवस या मई डे नाम से भी जाना जाता है, वहीं कई देशों में अलग-अलग तारीख पर मजदूर दिवस मनाया जाता है...इसकी शुरुआत की बात करें तो अंतराष्‍ट्रीय तौर पर मजदूर दिवस की शुरुआत 1 मई 1886 को तब हुई थी जब अमेरिका के मजदूर संघों ने 8 घंटे से ज्‍यादा काम नहीं करने का फैसला किया और हड़ताल के लिए हल्लाबोल दिया...8 घंटे काम की मांग के लिए उस वक्त बड़ी संख्या में मजदूर जुटे, लेकिन इस हड़ताल में एक घटना घटी जिससे दुनिया दहल गई, हुआ ये कि, शिकागो की हे-मार्केट में बम ब्लास्ट हुआ और पुलिस ने मजदूरों पर गोली चला दी...उस गोलीबारी में कई मजदूरों की मौत हो गई और सैकड़ों लोग घायल हुए थे...इसके बाद साल 1889 में रेमंड लैविने ने अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन का ऐलान किया और एक प्रस्ताव रखा गया कि, हेमार्केट नरसंहार में मारे गये निर्दोष लोगों की याद में मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाएगा और सभी कामगारों और मजदूरों को इस दिन छुट्टी मिलेगी...
भारत में मजदूर दिवस के मायने क्या?
भारत में भी 1 मई को ही मजदूर दिवस मनाया जाता है...कुछ संगठन इसे मई डे नाम से भी मनाते हैं...दरअसल, भारत में लेबर किसान पार्टी ऑफ हिन्‍दुस्‍तान के नेता कामरेड सिंगरावेलू चेट्यार  के नेतृत्व में मद्रास के हाईकोर्ट सामने एक बड़ा प्रदर्शन किया...1 मई 1923 को मद्रास में इसकी शुरुआत की थी...शुरुआत में इसे मद्रास दिवस के रूप में मनाया जाता था... और एक संकल्प पास करके ये सहमति बनाई गई कि इस दिवस को भारत में भी कामगार दिवस के तौर पर मनाया जाये और इस दिन छुट्टी का ऐलान किया जाये....तब से हमारे देश में भी ये मजदूर दिवस के रुप में मनाया जाने लगा...अब देश और विदेश में मजदूर दिवस मनाने का मकसद भले ही एक हो, लेकिन मायने और मतलब बेहद अलग हैं...आजादी के इतने साल में भले ही बहुत कुछ बदला होलेकिन देश में मजदूरों के हालात नहीं बदले...कड़ाके की सर्दी का कहर हो या ज्येष्ठ की तपती दोपहरीदूसरों के लिए आलिशान आशियाने बनाने वाले मजदूरों को खुद के लिए खुले आसमान का ही आसरा है...फैक्ट्रियों में काम करने वाले आज भी फटेहाल ही हैं...रोजगार की कमी ने शहरीकरण को शह दी है, कुछ लोग भूखे पेट तो कोई सूखी प्याज और रोटी लेकर....गांव की गलियों से हर रोज रोटी के जुगाड़ में शहर आते हैं...कुछ स्थाई शहरी मजदूर भी बन गए हैं. इन सबमें कुछ को काम मिल जाता है...और कुछ निराशा को नसीब पर लपेटकर खाली हाथ घर लौट जाते हैं...शहरों-कस्बों के चौराहे मजदूरों की मंडी बन गए हैं...नोएडा जैसे शहर  लेबर चौक का नामकरण उसी से प्रेरित होकर रखा गया है....इन चौरैहों पर हर सुबह मजदूरों की बोली लगने का नजारा आप अपनी नजरों से देख सकते हैं शायद देखते भी होंगे... वहीं तकनीक ने भी लोगों की जरुरत को कम कर दिया, जो काम पहले 100 मजदूर मिलकर करते थेवो काम अब एक रोबोट/मशीन करने लगी है जिससे बेरोजगारी और बढ़ी है...अब जिन्हें काम मिल गया वो नसीब वाले जिन्हें नहीं मिला उनसे बड़ा बदनसीब कौन....कई बार तो कई दिन तक काम ना मिलने का सिलसिला भी चलता है...फिर किसके लिए मनाएं मजदूर दिवस...और अगर इन्ही हालात पर खुश होने के लिए मनाना है तो फिर मनाते रहिए मजदूर दिवस...इस हकीकत में कैसे बदले हालकैसे बदले दशा और दिशा...ना सामाजिक स्तर बदलाना शिक्षा का स्तर बदलाजिंदगी कल और आज इसी ठर्रे पर चल रही है...डॉक्टर का बेटा डॉक्टरवकील का बेटा वकील, नेता का बेटा नेता...फिर तो मजदूर के बच्चे मजदूर ही रहेंगे...कोल्हू के बैल की तरह काम करने के बाद भी मुनाफे की अंधी दौड़ में मजदूरी के नामपर शोषण मिलता है...कोई बंधुआ मजदूर बनके मजबूर है...तो कोई बाल मजदूरी में मजबूर...तोक्या कहेंगे इसे मजदूर दिवस या मजबूर दिवस...मजदूरों के लिए एक दिन तो नाम कर दिया गया है...लेकिन साल भर ये तबका काम के लिए लिए संघर्ष करता है....कहावत के मुताबिक तो रोज कुआ खोदना और रोजाना पानी पीने के लिए अभिशप्त है मजदूर...।
कार्ल मार्क्स का वो नारा कि, संगठित बनो और अधिकारों के लिए संघर्ष करो आज के दौर में भी उतना ही प्रासंगिक बना हुआ है जितना कि उनके वक्त में था.... मजदूरों के संगठन के नाम पर देश और दुनिया में ढ़ेर सारे संगठन हैं...लेकिन मजदूरों की हालत में कितना सुधार हुआ किसी से छिपा नहीं है...हकीकत ये है कि, ज्यादातर संगठन निजी स्वार्थ के तबे पर जमकर रोटियां सेंक रहे हैं और मजदूरों के अधिकारों के संघर्ष की सौदेबाजी कर रहे हैं...मजदूरों के अधिकार सरकारों के नहीं भगवान के भरोसे हैं,और जिन संगठनों के भरोसे ये मजदूर हैं वो सरकारों को ईमान बेचने से भी नहीं शरमाते....
मजदूरों के हालात की हकीकत क्या है?
ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स-2013 की सूची के मुताबिकदुनियाभर में करीब 3 करोड़ लोग मजदूरी में गुलामी जैसी जिंदगी जी रहे है...भारत का तो आंकड़ों में जवब ही नहीं...भारत में न्यूनतम मजदूरी के लिए तरस रहे हैं मजदूर...सरकारों की फाइलों में न्यूनतम मजदूरी पर बड़े-बड़े आदेश रखे होंगे, लेकिन फाइलों के बाहर का मौसम गुलाबी नहीं है...एक अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संगठन के मुताबिक दुनिया में करोड़ 10 लाख लोग बंधुआ मजदूरी के शिकार हैं जिनको कोई पगार नहीं मिलती है...अरब देशों में प्रवासी मजदूरों के हाल गुलाम और बंधुआ मजदूरों के जैसा हैं...उनके मेहनताने पर दलालों का ही कब्जा रहता है...आंकड़ों के मुताबिक कतर में लाख से अधिक भारतीय मजदूर हैं...एक रिपोर्ट के मुताबिक कतर में ही पिछले सालों में करीब 500 भारतीय मजदूर काल के गाल में समा गए हैं...मानवाधिकारों की संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने माना कि प्रवासी मजदूरों के साथ जानवरों जैसा सलूक होता है... ।
कार्ल मार्क्स ने कहा था कि, एक होने पर तुम्हारा कोई नुकसान नहीं होगीबल्कि तुम गुलामी की जंजीरों से आजाद हो जाओगे
लेकिन यहां तो 21वी सदी भी शताब्दियों से संघर्षरत मजदूर को हक और सम्मान दिलाने में सक्ष्म नहीं दिखती है...ढाक के तीन पात की कहानी ये कि, दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में मजदूरों का दमन और शोषण खूब होता है...ऐसा कोई सूबा नहीं जहां मजदूर सिसकियां नहीं ले रहा हो...तमाम सरकारों ने कानून तो गढ़े लेकिन इन कानूनों में मजदूर ही कहीं दबकर रह गए, हालात तो छोड़ दीजिए बीते समय में हुए कुछ हादसों को देखें तो उनको जीने का हक भी नहीं मिला है...।
झारखण्ड के देवघर में देश की सबसे बड़ी अदालत के आदेश से मुक्त हुए 2000 बंधुआ मजदूर सालों से अपने से पुनर्वास के लिए छटपटा रहे हैं।
पंजाब के जालन्धर जिले में कंबल बनाने वाली चार मंजिला फैक्ट्री गिरने के कारण सैकड़ों मजदूर जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहे हैं और कई जिंदगी की जंग हार भी चुके हैं।
उत्तर प्रदेश में कुछ ईंट भठ्ठों पर महीनों तक बंधक बनाकर बिना मजदूरी दिए काम कराने की खबरें आती रही हैं।
कई घटनाओं में होता है कि, मजदूर की मौत को उसी मिट्टी में दफ्न कर दिया जाता है,आन्ध्र प्रदेश के गुंटुर में जमीन के अन्दर बनाई जा रही सुरंग के अन्दर काम कर रहे 5 मजदूर मिट्टी गिरने से जिंदा दप्न हो गए और ठेकेदार बाकी लोग मदद के बजाय फरार हो गए।
हरियाणा में एक मजदूर ने जब अपना वेतन मांगा तो ठेकेदार और उसके एक साथी ने मजदूर पर कैंची से हमला बोल दिया।
कुछ साल पहले मानेसर में एक कार के प्लांट करीब 50 मजदूर और 2000 से ज्यादा अप्रेंटिस करने वालों को बिना कारण बताए बाहर का रास्ता दिखा दिया।
तमिलनाडु का त्रिपुर तो साल 2009 में मजदूरों की आत्महत्या के लिए सुर्खियों में रहा।
पश्चिम बंगाल की बात करें तो दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्रतराई डवार्स के चाय बागानों में मजदूरों की हालत बेहद खराब यहां तो 70 रुपये से भी कम मजदूरी मिलती है।
मनरेगा जैसी कल्याणकारी योजनाएं भी मजदूरों का मुस्तकबिल नहीं बदल पाईं...कही काम नहीं, कहीं जॉबकार्ड नहीं और कही काम के बाद भी मेहनताना नहीं....।
बहरहाल, इन हालात में हर साल हर मजदूर दिवस पर बड़ी-बड़ी सभाएं होती हैंबड़े-बड़े सेमीनार होते हैं...उन शामियानों में मजदूरों के हक की बातें सुनकर ऐसा लगता है कि मजदूरों कोई समस्या बचेगी ही नहीं....लेकिन ना जाने कितने मई दिवस आकर चले गए... मजदूर की जिंदगी में आज भी अंधेरा है...न्यूनतम मजदूरी के लिए मजबूर है मजदूर..इसलिए हर साल की तरह इस साल भी सवाल ये है किआखिर क्या मायने हैं ऐसे मजदूर दिवस के ?



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